मुरली mp1news के माध्यम से पढ़ सकते हैं। YouTube की लिंक को क्लिक कर सुन भी सकते है।                                                            “मीठे बच्चे - तुम इस रूहानी युनिवर्सिटी में आये हो बुद्धू से बुद्धिवान बनने, बुद्धिवान अर्थात् पवित्र, पवित्र बनने की पढ़ाई तुम अभी पढ़ते हो''
प्रश्नः-बुद्धिवान बच्चों की मुख्य निशानी सुनाओ?
उत्तर:-बुद्धिवान बच्चे ज्ञान में सदा रमण करते रहेंगे। उन्हें मौलाई मस्ती चढ़ी हुई होगी। उनकी बुद्धि में सारे सृष्टि चक्र की नॉलेज रहती। नशा रहता कि हमारा बाबा हमारे लिए परमधाम से आया हुआ है। हम उनके साथ परमधाम में रहते थे। हमारा बाबा ज्ञान का सागर है, हम अभी मास्टर ज्ञान सागर बने हैं। हमें वह मुक्ति-जीवनमुक्ति का वर्सा देने आये हैं।
गीत:-कौन आया मेरे मन के द्वारे........ 

ओम् शान्ति। जीव की आत्मा जानती है कि हमारा परमपिता परमात्मा हमको सम्मुख पढ़ा रहे हैं वा राजयोग सिखला रहे हैं। तो जैसे कि यह ईश्वरीय युनिवर्सिटी ठहरी। युनिवर्सिटी इसको क्यों कहते है? ऐसे नहीं, और जो भी सब युनिवर्सिटीज़ हैं वह युनिवर्स के लिए हैं। नहीं। जैसे विलायत में युनिवर्सिटी है परन्तु वहाँ हैं गोरे तो काले लोगों को आने की एलाउ नहीं करते हैं। तो वह युनिवर्स के लिए तो ठहरी नहीं। तो उनको युनिवर्सिटी नहीं कहेंगे। यहाँ तुम बच्चे जानते हो - यह सच्ची-सच्ची ईश्वरीय युनिवर्सिटी है। परन्तु कोई भी समझ नहीं सकते हैं क्योंकि बुद्धू हैं। बुद्धू को बुद्धिवान बाप ही बनाते हैं। मनुष्य बुद्धिवान के आगे माथा झुकाते हैं। देवी-देवताओं को, संन्यासियों आदि को माथा झुकाते हैं। संन्यासी पवित्र हैं तो जरूर बुद्धिवान ठहरे। पवित्रता को अच्छा मानते हैं। यह विकार ही मनुष्य को हैरान करते हैं इसलिए पवित्र रहने वाले संन्यासियों को गृहस्थी लोग बुद्धिवान समझते हैं और उनके चरणों में झुकते हैं। बस, संन्यासी लिबास देखा और झट माथा झुकायेंगे। अभी तो उन्हों का मान कम हो गया है इसलिए सम्भालकर कदम उठाते हैं। आगे तो संन्यासियों को देख झट ऑफर करते थे - स्वामी जी, हमारे घर पर चलो। अभी तो टू मच हो गये हैं और तमोप्रधान बन पड़े हैं इसलिए जो बहुत नामीग्रामी हैं उनका ही मान होता है। बड़े आदमी भी उनको माथा झुकाते हैं - क्यों? पढ़े-लिखे तो संन्यासियों से भी जास्ती हैं। परन्तु वह पवित्र हैं, संन्यास किया है इसलिए बुद्धिवान माने जाते हैं। अभी तुम बुद्धिवान बनते हो। तुम अभी रचयिता और रचना के आदि-मध्य-अन्त को जानते हो। परन्तु तुम्हारे में भी सभी को इतना नशा नहीं है। नशा चढ़ने में भी टाइम बहुत लगता है। पूरा नशा तो अन्त में ही रहता है। अभी जितना-जितना तुम पुरुषार्थ करते हो उतना नशा चढ़ता जाता है। निरन्तर यह याद रहना चाहिए - हम आत्माओं का बाप परमात्मा आया हुआ है। हमको पढ़ा रहे हैं - विश्व का मालिक बनाने। तो पुरुषार्थ करने की शुभ चिंता होनी चाहिए। सभी को वह चिंता नहीं रहती। यहाँ सुनते समय नशा चढ़ा, यहाँ से बाहर निकला और खेल ख़लास। नम्बरवार हैं ना। हम आत्माओं का बाप आया है। हम उनके पास परमधाम में रहते थे। ऐसे और कोई नहीं समझते हैं। साधू-संन्यासी आदि पवित्र हैं। तुम्हारे में भी नम्बरवार हैं। सभी को यह निश्चय नहीं बैठा है कि हमारा परमपिता परमात्मा ज्ञान का सागर है, जीवन्मुक्ति दाता है जो हमको स्वर्ग का मालिक बनाते हैं। यहाँ से पांव बाहर निकाला और वह खुशी गुम हो जाती है। नहीं तो तुम बच्चों को कितनी खुशी रहनी चाहिए!

मैंने भी इस तन का आधार लिया है। नहीं तो राजयोग कैसे सिखलाऊं? मुझे अपना शरीर नहीं है। मन्दिरों में देखेंगे तो सबको अपना शरीर है। मैं तो अशरीरी हूँ। और सभी को आकारी वा साकारी शरीर मिला हुआ है। मेरा शरीर नहीं है। सोमनाथ का मन्दिर है अथवा शिव के मन्दिर में जहाँ भी जाओ वहाँ निराकारी रूप है। सिर्फ नाम भिन्न-भिन्न रख दिये हैं। यह तो जानते हो आत्मा परमधाम से आती है। भिन्न-भिन्न शरीर धारण कर पार्ट बजाती है। मैं इस 84 के चक्र में नहीं आता हूँ। मैं हूँ परमधाम में रहने वाला। इस शरीर में आया हूँ। तुम कहेंगे निराकार फिर कैसे आते हैं? हाँ, आ सकते हैं। तुम लोग पित्र खिलाते हो तो आत्मा आती है ना। शरीर तो नहीं आता। आत्मा प्रवेश करती है। समझते हैं आत्मा दूसरे शरीर में प्रवेश करती है। कोई तो भूत की आत्मायें बहुत चंचल होती हैं। पत्थर आदि मारती हैं। आत्मा शरीर में आती है तब कुछ कर सकती है, उसे घोस्ट कहते हैं। अशुद्ध आत्मायें भी प्रवेश करती हैं। तुम बच्चों को अनुभव है कि कैसे अशुद्ध आत्मायें भटकती हैं। जब तक उनको अपना शरीर मिले। शुद्ध आत्मायें भी आती हैं। यह भी ड्रामा में नूँध है। जो कुछ पास हुआ ड्रामा का खेल है। बाप समझाते है - मैं आकर साधारण बूढ़े तन में प्रवेश करता हूँ। जरूर अनुभवी का शरीर चाहिए ना। ब्रह्मा का नाम मशहूर है। ब्रह्मा की राय भी मशहूर है। ब्रह्मा को फिर कहाँ से राय मिली? ब्रह्मा है शिवबाबा का बच्चा। तो उनकी है श्रीमत। तो जरूर मुख्य श्रीमत ब्रह्मा की होनी चाहिए जिसमें बाप प्रवेश करते हैं। भारतवासी इन बातों को नहीं जानते। वह तो समझते हैं - सब एक ही एक है। श्रीकृष्ण शिव आदि सब एक ही हैं। श्रीकृष्ण को महात्मा योगेश्वर कहते हैं। परन्तु क्यों कहते हैं? यह तो समझते नहीं। श्रीकृष्ण की आत्मा अभी ईश्वर द्वारा योग सीख योगेश्वर बन रही है। कितना गुप्त राज़ है! मनुष्य तो कह देते - परमात्मा नाम-रूप से न्यारा है, उनका शरीर है नहीं। परन्तु तुम तो कहते हो - सोमनाथ का मन्दिर शिव के अवतरण का यादगार है। जरूर कल्प पहले शिव-बाबा आया हुआ था और अब आया हुआ है। फिर द्वापर में उनकी भक्ति शुरू होती है। शिवरात्रि मनाते हैं।

बाप बैठ समझाते हैं, तुम आत्मायें परमधाम से आई हो पार्ट बजाने। आत्मा अविनाशी है। इसमें 84 जन्मों का पार्ट भरा हुआ है। जैसे बाप पुराने शरीर में आये हैं वैसे तुम भी पुराने शरीर में हो। बाबा इस पुराने शरीर से लिबरेट कर नया देते हैं। युक्ति बतलाते हैं कि कौड़ी तुल्य से हीरे तुल्य कैसे बनो? गाते भी हैं - माशूक एक। बाप कहते हैं - मैं परमधाम का रहवासी हूँ, तुम भी परमधाम में रहने वाले हो। मैं पुराने ते पुराने शरीर में आया हूँ। तुम्हारा भी 84 जन्मों के अन्त का यह पतित तन है। तुम भी अपने को आत्मा समझो। हमने 84 जन्म भोग पूरे किये हैं। अभी फिर नई दुनिया में हमको नया शरीर मिलेगा। तो कितनी खुशी में रहना चाहिए! नम्बरवार हैं, कोई तो बिल्कुल ही डलहेड हैं। माया ने बिल्कुल ही पत्थर-बुद्धि बना दिया है। जैसे गर्म तवे पर पानी डालो तो बिल्कुल ही सूख जायेगा। ऐसे तत्ते तवे हैं। अरे, तुम अपने को सिर्फ आत्मा, बाप की सन्तान समझो। वह भी नहीं समझते! अगर समझते तो आश्चर्यवत भागन्ती क्यों हो जाते? माया बड़ी जबरदस्त है। कोई ग़फलत की और माया थप्पड़ मार देगी। अरे, बाबा आया है वर्सा देने, फिर भी तुम विकारी बनते हो! बड़ा जबरदस्त थप्पड़ लगाती है। बाप तो थप्पड़ नहीं मारेंगे। माया थप्पड़ मार मुँह फेर देती है। ऐसे बहुत माया के थप्पड़ खाते रहते हैं। माया भी कहती हैं - तुम बाप को याद नहीं करते हो तो मैं मारती हूँ। माया को हुक्म मिला हुआ है। बुद्धिहीन को बुद्धिवान बनाना है तो क्यों नहीं सर्विस करते हो। क्या अब तक माया के मोचरे खाते रहना है! बहुत मोचरा खाते रहते हैं - कोई को क्रोध का, कोई को मोह का मोचरा। बाप कहते हैं - तुम सब कुछ सरेन्डर कर ट्रस्टी हो रहो। विकार भी दान में दिया फिर काम में क्यों लाते हो! विकारों का तो कोई रूप नहीं है। धन के लिए कहेंगे ट्रस्टी हो रहो। भल काम में लगाना परन्तु बहुत सम्भाल से, बाप की श्रीमत से। पैसे से कोई ऐसा विकर्म नहीं करना। नहीं तो उनका बोझा सारा तुम्हारे सिर पर चढ़ेगा।

माया बड़ी तमोप्रधान है। वह भी जानती है - यह बाप को ठीक रीति याद नहीं करते हैं इसलिए मारो इनको घूँसा। माया कहती है - अगर बाप और वर्से को याद नहीं करेंगे तो मैं थप्पड़ मार दूँगी। बहुत बच्चे लिखते भी हैं - बाबा, माया ने थप्पड़ मार दिया। बाबा भी लिखते हैं - हाँ बच्चे, माया को हुक्म मिला हुआ है, खूब थप्पड़ मारो क्योंकि तुम मेरा बनते नहीं हो। तुमको सदा सुखी बनाने आया हूँ, तो भी तुम बच्चे याद नहीं करते हो। है भी बड़ा सहज। परन्तु टाइम लगता है। नहीं तो बाप और वर्से को याद कर खुशी का पारा चढ़ जाना चाहिए। आखिर में याद करते-करते झुझकी (हिचकी) आये - बस, हम बाबा के पास चला जाता हूँ। फिर आ जाऊगाँ स्वर्ग में। एकदम जैसे मौलाई बन चले जायेंगे।

अच्छा! यह तो कोई नहीं जानते है - आत्मा आशिक है परमपिता परमात्मा की। सच्चे-सच्चे आशिक तुम हो। आधा कल्प तुम आशिक बन माशूक को खूब याद करते हो। परन्तु यह जानते नहीं कि आत्मा परमात्मा पर आशिक होती है। वह तो कह देते - आत्मा सो परमात्मा, परमात्मा सो आत्मा। यहाँ तो बहुत फ़र्क है। तुम जानते हो - परमात्मा है माशूक। वह पवित्र सोल हमको कितना खूबसूरत बनाती है! हम आत्मा गन्दी बनने से जेवर भी गन्दे बन पड़े है। बाबा आये हैं फिर गोरा बनाने फिर शरीर भी गोल्डन एजेड मिलेगा। खाद सोने में डालते हैं ना।

अब देखो - यह मन्दिर है आदि देव का। उनका नाम कोई ने महावीर रख दिया। अर्थ कुछ नहीं जानते। हनूमान को भी महावीर कह देते हैं। अब कहाँ हनूमान, कहाँ फिर आदि देव को भी महावीर कह देते। जैनी महाराज मुनी ने जो कुछ कहा वह चल पड़ा। आजकल तो रिद्धि-सिद्धि भी बहुत हो पड़ी है। यह बाबा सबको जानते हैं। बहुत मेहनत करते हैं। हाथ से केसर निकालते हैं। मनुष्य समझते है - बस, कमाल है! झट फालोअर्स बन जाते हैं। रिद्धि-सिद्धि वालों के तो ढेर फालोअर्स हैं। यहाँ तो वह बात नहीं है।

बाबा कहते है - मैं 5 हजार वर्ष पहले मुआफिक आया हूँ। ऐसे कोई कह न सके। बच्चे कहते हैं - बाबा, 5 हजार वर्ष पहले हम आये थे। आप से स्वर्ग का वर्सा पाया था। अब फिर परमपिता परमात्मा शिव के बच्चे आकर बने हैं इस ब्रह्मा द्वारा। दुनिया है कलियुग में। कलियुग में ब्राह्मण कहाँ से आये? ब्राह्मण तो संगम पर चाहिए। पैर और चोटी, संगम हुआ ना। शूद्र और ब्राह्मण का संगम। शूद्र से फिर ब्राह्मण बनते हैं। यह 84 का चक्र तो कोई नहीं जानते। तुम जानते हो - हम ब्राह्मण हैं, ब्रह्मा की औलाद प्रैक्टिकल में बने हैं। उन ब्राह्मणों को तुम कह सकते हो - तुम ब्राह्मण अपने को ब्रह्मा की औलाद कहलाते हो। अच्छा, ब्रह्मा का बाप कौन है? बता नहीं सकेंगे। डिब्बी में ठिकरी। बस, हम ब्राह्मण ही भगवान् हैं! तुम सब भक्त थे। अब कहते हो - हम लक्ष्मी को वरने लायक बन रहे हैं। इसमें पुरुषार्थ चलता है। समझो, हम परमधाम से आये हैं। अभी बाबा फिर वापिस ले जाने लिए आये हैं। हम भी ब्रह्माण्ड के मालिक हैं। बाबा भी पुराने तन में आये हैं। हम भी पुराने तन में हैं। बाप कहते हैं - हमको भी पुराना तन लेना पड़ता है। अब मुझ बाप को याद करो तो विकर्म विनाश होंगे। टाइम भी देते हैं। पाण्डव गवर्मेन्ट की सर्विस कम से कम 8 घण्टा होनी चाहिए। राजयोग सिखलाना है। शंखध्वनि करनी है। तुम श्रीमत से भारत को ख़ास और दुनिया को आम स्वर्ग बनाते हो। स्वर्ग में सिर्फ तुम आते हो और धर्म वाले नहीं आते। ब्राह्मण, देवता, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र - इसको विराट स्वरूप कहा जाता है। एक विराट रूप का भी चित्र बनाना चाहिए जो मनुष्यों को सहज समझ में आये। विष्णु को विराट स्वरूप में ले आये हैं। चित्र तो जरूर चाहिए ना। स्कूल में भी चित्र रखते हैं ना। नहीं तो बच्चा क्या जाने - हाथी क्या होता है? चित्रों पर दिखाते हैं। तो यह भी चार युग हैं। अब कलियुग है। जरूर चक्र फिरेगा। ब्राह्मण तो संगम पर होते हैं। बाकी हैं जिस्मानी ब्राह्मण, पण्डे। वह ब्रह्मा मुख वंशावली नहीं हैं। ब्रह्मा मुख वंशावली को तो दादे से वर्सा मिलता है। उन ब्राह्मणों को वर्सा कहाँ मिलता! इन बातों को तो तुम्हारे में भी नम्बरवार समझ सकते हैं। अच्छा!

मीठे-मीठे सिकीलधे बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का याद, प्यार और गुडमॉर्निग। रूहानी बाप की रूहानी बच्चों को नमस्ते।

धारणा के लिए मुख्य सार:-

1) बुद्धि से सब कुछ सरेन्डर कर ट्रस्टी हो रहना है। बहुत सम्भाल से श्रीमत प्रमाण हर कार्य करना है।

2) बाबा और वर्से को याद कर अपार खुशी का अनुभव करना है। बाबा की याद में मौलाई बन जाना है। सच्चा आशिक बनना है।

वरदान:-समाने और समेटने की शक्ति द्वारा एकाग्रता का अनुभव करने वाले सार स्वरूप भव
देह, देह के सम्बन्धों वा पदार्थो का बहुत बड़ा विस्तार है, सभी प्रकार के विस्तार को सार रूप में लाने के लिए समाने वा समेटने की शक्ति चाहिए। सर्व प्रकार के विस्तार को एक बिन्दू में समा दो। मैं भी बिन्दु, बाप भी बिन्दु, एक बाप बिन्दु में सारा संसार समाया हुआ है। तो बिन्दु रूप अर्थात् सार स्वरूप बनना माना एकाग्र होना। एकाग्रता के अभ्यास द्वारा सेकण्ड में जहाँ चाहो, जब चाहो बुद्धि उसी स्थिति में स्थित हो सकती है।
स्लोगन:-जो सदा रूहानियत की स्थिति में रहते हैं वही रूहानी गुलाब हैं।                                                                                                  कार्यालय:- राजयोग भवन, E-5 अरेरा कॉलोनी भोपाल मध्य प्रदेश।                                                                        संपर्क:-9691454063,9406564449,https://youtu.be/9KKasOVcOgg

न्यूज़ सोर्स : madhuban