09 August.2023/ शिव बाबा की मुरली (परमात्मा की वाणी) आज की प्रातः मुरली मधुबन से।
मुरली mp1news के माध्यम से पढ़ सकते हैं। YouTube की लिंक को क्लिक कर सुन भी सकते है। “मीठे बच्चे - ज्ञान की धारणा तब होगी जब देही-अभिमानी बनेंगे, देही-अभिमानी बनने वाले बच्चों को ही बाप की याद रहेगी।''
प्रश्नः-किस एक भूल के कारण मनुष्यों ने आत्मा को निर्लेप कह दिया है?
उत्तर:-मनुष्यों ने आत्मा सो परमात्मा कहा, इसी भूल के कारण आत्मा को निर्लेप मान लिया लेकिन निर्लेप तो एक शिवबाबा है, जिसे दु:ख-सुख, मीठे-कड़ुवे का अनुभव नहीं। आत्मा तो कहती है फलानी चीज़ खट्टी है। बाप कहते हैं मेरे पर किसी भी चीज़ का असर नहीं होता है, मैं इन लेप-छेप से निर्लेप हूँ, ज्ञान का सागर हूँ, वही ज्ञान तुम्हें सुनाता हूँ।
गीत:-तकदीर जगाकर आई हूँ........
ओम् शान्ति। यह किसने कहा? आत्माओं ने कहा इन आरगन्स द्वारा। आत्मा शान्त स्वरूप है। मुझ आत्मा को यह शरीर मिलता है, तब टॉकी बनती हूँ। शरीर द्वारा अनेक प्रकार का कर्म करती हूँ। पहले-पहले यह निश्चय करना है। और सतसंग में मनुष्य, मनुष्य को सुनाते हैं, देहधारी बोलते हैं। कहेंगे फलाना महात्मा बैठा है। यहाँ यह बातें नहीं हैं। तुम समझते हो हम तो आत्मा हैं, यह शरीर रूपी आरगन्स हैं। आत्मा परमपिता परमात्मा द्वारा सुन रही है, जिसका एक ही नाम है शिव। इस समय बच्चे बैठे हैं सुनने लिए। कौन सुनाते हैं? बेहद का बाप। जब परमपिता परमात्मा कहा जाता है तो बुद्धियोग ऊपर चला जाता है। शिव माना बिन्दी। आत्मा भी बिन्दी है, परमात्मा भी बिन्दी है। परन्तु उनको परमपिता परमात्मा कहा जाता है। वह बाप हुआ और आत्मायें बच्चे ठहरे। समझना है कि हम आत्मा इस शरीर द्वारा अपने पारलौकिक बाप की सन्तान बनी हूँ। तुम बच्चों को देही-अभिमानी बनना पड़े। और सब जगह मनुष्य, मनुष्य को समझाते हैं। कोई गीता पाठी होते हैं वह भी गीता को याद कर कहेंगे गीता में भगवान् ने ऐसे-ऐसे कहा है। समझते हैं भगवान् ने साकार में यह गीता सुनाई थी। कोई बैठ वेद-शास्त्र सुनाते हैं। वेद तो मनुष्यों ने रचे हैं। निराकार भगवान् वेद नहीं बनायेंगे। व्यास तो मनुष्य था। व्यास को परमात्मा नहीं कहेंगे। परमपिता परमात्मा तो बिन्दी है। बच्चे साकार में हैं, साकारी रूप है। बाप तो है निराकार।
बाप कहते हैं मुझे तो कभी छोटा-बड़ा नहीं बनना है। तुम छोटे-बड़े होते हो। मुझे तो कहते ही हैं परमपिता। मनुष्य पहले बालक बन फिर बड़े हो बाप बनते हैं, फिर बालक बनते हैं। मैं तो हमेशा पिता ही हूँ, मैं बालक नहीं बनता हूँ। मेरा एक ही नाम शिव है। तुम्हारे 84 नाम पड़ते हैं क्योंकि 84 जन्म लेते हो। मैं परमपिता तो बिन्दी रूप हूँ। सिर्फ पूजा के लिए भक्ति मार्ग वालों ने बड़ा रूप बनाकर रखा है। जैसे कोई का बड़ा चित्र बनाते हैं ना। बुद्ध का बहुत बड़ा चित्र बनाते हैं। इतना लम्बा मनुष्य तो होता नहीं। यह मान देते हैं। समझते हैं बहुत बड़ा था। बाप तो ऊंचे ते ऊंच है, बड़े ते बड़ा परमपिता परम आत्मा। बाप अपना परिचय बैठ देते हैं - मेरे को शिव कहते हैं। बच्चों को समझाया जाता है - तुमको समझना है हम निराकार शिवबाबा के सम्मुख जाते हैं। मुझे तो हमेशा परमपिता परमात्मा ही कहेंगे। मनुष्य सृष्टि का बीजरूप हूँ। परम आत्मा बैठ समझाते हैं। आत्मा को ही नॉलेज है। गाते भी हैं परमपिता परम आत्मा (परमात्मा), वह ज्ञान का सागर है। हमको ज्ञान सुना रहे हैं। पहले-पहले आत्म-अभिमानी होना चाहिए। देह-अभिमानी नहीं बनना है। परन्तु ड्रामा अनुसार तुमको देह-अभिमानी बनना ही है। अब फिर बाप देही-अभिमानी बनाते हैं।
तुम सब बच्चे हो। यह भी बच्चा है। आत्मा परमपिता परमात्मा दादे से वर्सा लेती है। लौकिक सम्बन्ध में सिर्फ बच्चों को ही वर्सा मिलता है, कन्या को नहीं मिलता है। बेहद का बाप कहते हैं तुम सब आत्मायें हो, तुम हर एक को हक है। तुम मुझ परमपिता परमात्मा के थे और हो। कहते हैं ना ओ गॉड फादर, ओ परमपिता परमात्मा। महिमा करते हैं। कौन करते हैं? आत्मा। वह लौकिक फादर तो शरीर का है, यह है आत्माओं का बाप। आत्मा बुलाती है ओ परमपिता परमात्मा। अविनाशी बाप को याद करते ही आये हैं क्योंकि रावण राज्य में दु:ख ही दु:ख है। जब से रावण राज्य शुरू होता है तब से याद करना शुरू होता है। याद तो बाप को ही करना है क्योंकि वर्सा बाप से ही मिलता है। यहाँ तो मनुष्यों को बहुतों की याद रहती है। गुरू लोग एक की याद भुला देते हैं। अगर सर्वव्यापी है तो फिर गॉड वा फादर किसको कहें? बाप घड़ी-घड़ी कहते हैं - बच्चे, देही-अभिमानी बनो, उठते-बैठते मुझ बाप को याद करो। समझो, हम श्रीमत पर चल रहे हैं। मैं आत्मा खा रही हूँ बाबा की याद में। याद से विकर्म विनाश होंगे। मंज़िल है बड़ी भारी। योग कोई मासी का घर नहीं है। मनुष्यों ने तो बाप का नाम ही प्राय:लोप कर दिया है। श्रीकृष्ण तो बच्चा ठहरा। इतनी बड़ी प्रालब्ध जरूर बाप ने ही दी है।
बाप समझाते हैं - देह सहित देह के सब धर्म भूल जाओ। यह नाम तो सब बाद में रखे गये हैं। तो यह समझना है कि परमपिता परमात्मा द्वारा हम यह नॉलेज पढ़ रहे हैं। और कोई ऐसे स्कूल नहीं हैं जहाँ समझें कि हम आत्मा हैं। तुम जानते हो पहले सतोप्रधान थे फिर सतो, रजो, तमो में आते हैं। खाद आत्मा में पड़ती है। मेरे में तो कभी खाद नहीं पड़ती। मैं एवर सच्चा सोना हूँ। तुम्हारी आत्मायें सब इस समय आइरन एजेड बन गई हैं। मम्मा भी कहेगी - हमने शिवबाबा से जो सुना है, वही सुनाते हैं। शिवबाबा तो खुद ज्ञान का सागर है। यह बड़ी समझ की बातें हैं। बरोबर हम बाबा के बने हैं, वह हमें पढ़ाते हैं। बाबा से पढ़कर हम जीवनमुक्त बनते हैं। जीवनमुक्त माना इस शरीर में तो आना है, परन्तु सुख भोगना है। मुक्ति सबको मिलती है परन्तु जीवनमुक्ति में तो नम्बरवार आते हैं। मुक्त तो सब आत्मायें होती हैं। दु:ख से आधाकल्प के लिए मुक्त कर देते हैं। कहते हैं तुमको लिबरेट कर जीवनमुक्त बनाता हूँ। फिर कोई कितने जन्म लेते, कोई कितने जन्म लेते हैं। जीवनमुक्त तो सब बनते हैं। सद्गति दाता है ही एक। जो भी धर्म स्थापक हैं, सब पुनर्जन्म लेते-लेते अब तमोप्रधान बने हैं। मैं आकर सबको इन दु:खों से छुड़ाता हूँ इसलिए मुझे लिबरेटर कहते हैं, मुक्ति-जीवनमुक्ति दाता कहते हैं। मुक्ति अर्थात् अपने घर साइलेन्स धाम में जाना। बाप भी परमधाम से आते हैं, जिसको परलोक कहा जाता है। तुम निर्वाणधाम और स्वर्गधाम दोनों को याद करते हो। स्वर्ग और नर्क यहाँ ही होता है। इस समय सब समझते हैं - यह नर्क है। कितना दु:ख पाते रहते हैं। गरूड़ पुराण में तो बहुत रोचक बातें लिख दी हैं जिससे मनुष्यों को डर हो और पाप करने से बच जायें इसलिए ऐसी-ऐसी बातें बैठ बनाई हैं। द्वापर से यह शास्त्र बनाना शुरू करते हैं। बाप कहते हैं मैं आकर ब्रह्मा द्वारा ब्राह्मण धर्म रचता हूँ। वह फिर सूर्यवंशी-चन्द्रवंशी बनते हैं। दो युग में कोई धर्म स्थापन करने वाला नहीं आता है, फिर एक-दो के पीछे सब नम्बरवार आते हैं और अपने-अपने धर्म को जानते हैं। यह देवी-देवता धर्म प्राय:लोप हो जायेगा फिर अपने को देवता कहला नहीं सकेंगे। पतित कैसे श्री श्री अथवा श्रेष्ठ कहलायेंगे? बाप ही श्रेष्ठ बनाते हैं। देवी-देवताओं को श्रेष्ठ कहा जाता है। उनके चित्र भी हैं परन्तु समझते नहीं कि देवी-देवता धर्म कब था, किसने स्थापन किया? सतयुग की आयु ही लम्बी कर दी है।
अब बाबा कहते हैं - बच्चे, अपने को आत्मा समझो, बाप को याद करो। अब खेल पूरा होता है। देखते नहीं हो अब मुक्ति-जीवनमुक्ति के गेट्स खुल रहे हैं? मुक्ति-जीवनमुक्ति दाता तो एक ही है। यहाँ तो देखो जगत माता का टाइटिल भी कोई-कोई को देते रहते हैं। वास्तव में जगत अम्बा यह है ना। ऐसे कोई भी नहीं होगा जो जगत पिता भी हो, शिक्षक भी हो, जगत गुरू भी हो। भल मनुष्य अपने पर नाम बहुत रखाते हैं, परन्तु हैं नहीं। कहाँ वह लक्ष्मी-नारायण, कहाँ यह विकारी भी अपने ऊपर टाइटिल रख देते हैं। मनुष्य कितने बुद्धू बन गये हैं! आदि सनातन देवी-देवता धर्म को भूल उन्हों के टाइटल फिर अपने को दे देते हैं। वास्तव में ऊंच ते ऊंच मर्तबा तो एक का ही है, सद्गति दाता एक ही है। राम कहो तो भी वह एक ही निराकार ठहरा।
बाप कहते हैं भारतवासियों को अपने धर्म का पता नहीं - कब और किसने स्थापन किया? कोई किस देवी को याद करते, कोई श्रीकृष्ण को, कोई गुरू को याद करते। गुरू का फोटो भी लगा देते हैं। तुम्हारा चित्र से काम नहीं। जिसका कोई चित्र नहीं, वह है विचित्र। आत्मा विचित्र है। जैसे बाप विचित्र है वैसे बच्चे भी विचित्र हैं। आत्मा ही सुनती है। बाबा ने यह तन लोन लिया है। कहते हैं प्रकृति के आधार बिगर मैं ज्ञान कैसे दूँ? राजयोग कैसे सिखलाऊं? भगवान् निराकार को ही कहा जाता है। उनको आना ही है पतित दुनिया में। श्रीकृष्ण को दिखाते हैं कि पीपल के पत्ते पर सागर में आया, ऐसी कोई बात नहीं है। श्रीकृष्ण तो फर्स्ट प्रिन्स है विश्व का। वहाँ और कोई धर्म नहीं। अद्वेत राज्य है, फिर द्वेत हो जाती है, फिर अनेक प्रकार के धर्म स्थापन होते जाते हैं। तो बच्चों को यह समझना है कि बाबा इस शरीर में आकर हमको पढ़ाते हैं। बाबा कहते हैं मैं अशरीरी हूँ, इस शरीर द्वारा तुमको ज्ञान देता हूँ। मैं हूँ ज्ञान का सागर। यह सब बातें बाप बैठ समझाते हैं। सिर्फ ईश्वर वा परमात्मा कहने से बाप का सम्बन्ध भूल जाता है। परमात्मा बाप है, उनसे वर्सा मिलता है - यह भूल जाते हैं। वह हमारा बाप है, क्रियेटर है, हम उनकी रचना हैं। उसने क्रियेट किया है। कोई तो रचता होगा ना। बाबा ने समझाया है - पुरुष हद का ब्रह्मा है। बच्चों को क्रियेट करते हैं। पहले स्त्री को एडाप्ट करते हैं फिर उनके द्वारा बच्चे क्रियेट करते हैं। बाबा भी कहते हैं मैं इन द्वारा क्रियेट करता हूँ। स्त्री तो जरूर चाहिए ना। बाबा को कहते ही हैं तुम मात-पिता, तो यह (ब्रह्मा) माता हो गई, इन द्वारा एडाप्ट करते हैं। तो तुमको ब्रह्मा मुख वंशावली कहेंगे। तुम बाप के बने हो इन द्वारा। यह बड़ी वन्डरफुल बातें हैं। शास्त्रों में यह नहीं है। मुझे कहते हैं नॉलेजफुल, जानीजाननहार। मनुष्य समझते हैं परमात्मा सबके अन्दर की बातें जानते हैं, थॉट रीडर हैं। लेकिन इतने सबका थॉट रीडर कैसे बनेगा? बाप कहते हैं मैं मनुष्य सृष्टि का बीजरूप हूँ। मैं चैतन्य हूँ, सत हूँ। आत्मा भी चैतन्य है। शरीर असत है, घड़ी-घड़ी बदलता रहता है। आत्मा तो नहीं मरती। आत्मा यह नॉलेज ग्रहण करती है।
बाप समझाते हैं मैं परमपिता परमात्मा निर्लेप हूँ अर्थात् दु:ख-सुख का अथवा कड़ुवी-मीठी चीज़ का मुझे कोई असर नहीं होता है। मैं इन लेप-छेप से निर्लेप हूँ। ज्ञान का सागर हूँ। मनुष्य फिर कहते हैं कि आत्मा निर्लेप है क्योंकि आत्मा सो परमात्मा एक है। एक ने कहा - बस, उसके पीछे फॉलो करते रहते। बाप कहते हैं मैं निर्लेप हूँ। मुझे कोई खट्टा खारा नहीं लगता। यह इनकी आत्मा कहती है - फलानी चीज़ खट्टी है। मेरे में सारे सृष्टि का ज्ञान है जो आत्माओं को पढ़ाता हूँ। तुम हर एक को समझना है - हम आत्मा परमपिता परमात्मा द्वारा सुन रहे हैं। यहाँ तो बरोबर भगवानुवाच है। निश्चय करना चाहिए - गॉड क्रियेटर इज़ वन।
पहले-पहले मुख्य बात है भारत की। भारत को अविनाशी खण्ड कहा जाता है। यह भारत है बर्थ प्लेस पतित-पावन बाप का। यह बहुत ऊंच खण्ड है। यहाँ लक्ष्मी-नारायण की राजधानी होगी। यह तुम जानते हो कि बाप फिर से देवी-देवता धर्म की सैपलिंग लगा रहे हैं। जो इस धर्म के होंगे वही आकर वर्सा लेंगे, इसको सैपलिंग कहा जाता है। बाबा ने समझाया - देही-अभिमानी बनना है। बाबा हमको पढ़ा रहे हैं। हम इन कानों से सुनते हैं, पढ़ते हैं, पढ़ाते हैं। अच्छा!
मीठे-मीठे सिकीलधे बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का याद-प्यार और गुडमॉर्निंग। रूहानी बाप की रूहानी बच्चों को नमस्ते।
धारणा के लिए मुख्य सार:-
1) चित्र को भूल विचित्र बन विचित्र बाप को याद करना है। देह सहित देह के सब धर्मों को बुद्धि से भूलना है, देही-अभिमानी हो रहने का अभ्यास करना है।
2) देवी-देवता धर्म का सैपलिंग लग रहा है, इसलिए पावन जरूर बनना है। दैवीगुण धारण करने हैं।
वरदान:-अलौकिक जीवन की स्मृति द्वारा वृत्ति, स्मृति और दृष्टि का परिवर्तन करने वाले मरजीवा भव
ब्राह्मण जीवन को अलौकिक जीवन कहते हैं, अलौकिक का अर्थ है इस लोक जैसे नहीं। दृष्टि, स्मृति और वृत्ति सबमें परिवर्तन हो। सदा आत्मा भाई-भाई की वृत्ति वा भाई-बहिन की वृत्ति रहे। हम सब आपस में एक परिवार के हैं - यह वृत्ति रहे और दृष्टि से भी आत्मा को देखो, शरीर को नहीं - तब कहेंगे मरजीवा। ऐसी श्रेष्ठ जीवन मिल गई तो पुरानी जीवन याद आ नहीं सकती।
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