25 oct.2023/ शिव बाबा की मुरली (परमात्मा की वाणी) आज की प्रातः मुरली मधुबन से।
मुरली mp1news के माध्यम से पढ़ सकते हैं, YouTube की लिंक को क्लिक कर सुन भी सकते है। “मीठे बच्चे - तुम बेहद के बाप को याद करो, इसमें ही ज्ञान, भक्ति और वैराग्य तीनों समाया हुआ है, यह है नई पढ़ाई''
प्रश्नः-संगम पर ज्ञान और योग के साथ-साथ भक्ति भी चलती है - कैसे?
उत्तर:-वास्तव में योग को भक्ति भी कह सकते हैं क्योंकि तुम बच्चे अव्यभिचारी याद में रहते हो। तुम्हारी यह याद ज्ञान सहित है इसलिए इसे योग कहा गया है। द्वापर से सिर्फ भक्ति होती, ज्ञान नहीं होता, इसलिए उस भक्ति को योग नहीं कहा जाता। उसमें कोई एम ऑब्जेक्ट नहीं है। अभी तुम्हें ज्ञान भी मिलता, योग भी करते फिर तुम्हारा बेहद की सृष्टि से वैराग्य भी है।
गीत:- किसी ने अपना बना के........
ओम् शान्ति। बेहद का बाप समझाते हैं - शास्त्रों की पढ़ाई, वह कोई पढ़ाई नहीं है क्योंकि शास्त्रों की पढ़ाई में कोई एम आब्जेक्ट नहीं है। शास्त्रों से कोई दुनिया का पता नहीं पड़ता है, अमेरिका कहाँ है, किसने ढूँढी, यह बातें शास्त्रों में नहीं हैं। कहते हैं फलाने ने ढूँढी। दूसरे इलाके ढूँढते हैं अपने रहने लिए। देखा मनुष्य बहुत हो गये हैं, रहने लिए जमीन तो चाहिए ना। अब यह सब बातें पढ़ाई की हैं, इसको एज्युकेशन कहा जाता है। तुम्हारा भी यह एज्युकेशन है। इसको आश्रम कहें अथवा इन्स्टीट्युशन कहें वा युनिवर्सिटी कहें? इसमें सब आ जाता है। उस पढ़ाई के नक्शे आदि और हैं। शास्त्रों से रोशनी नहीं मिलती, पढ़ाई से रोशनी मिलती है। तुम्हारी भी पढ़ाई है। वैकुण्ठ किसको कहा जाता है? यह न उस पढ़ाई में है, न शास्त्रों की पढ़ाई में है। यह नॉलेज ही नई है जो एक बाप ही बतलाते हैं। मनुष्य तो कह देते स्वर्ग-नर्क सब यहाँ ही है। बाप ही समझाते हैं स्वर्ग-नर्क किसको कहा जाता है? यह बातें न शास्त्रों में हैं, न उस एज्युकेशन में हैं। तो नई बातें होने कारण मनुष्य मूँझते हैं, कहते हैं ऐसा ज्ञान तो कभी सुना नहीं। यह तो नई वन्डरफुल बातें हैं जो कभी कोई ने नहीं सुनाई हैं। हैं भी बरोबर नई बातें। न उस एज्युकेशन वाले सुना सकते, न संन्यासी आदि सुना सकते, इसलिए परमपिता परमात्मा को ही ज्ञान का सागर कहा जाता है। बेहद की हिस्ट्री-जॉग्राफी भी समझाते हैं। ज्ञान से स्वर्ग और नर्क का विस्तार भी सुनाते हैं। यह नई बातें हैं ना। इस पढ़ाई में सब कुछ है - ज्ञान भी है, योग भी है, पढ़ाई भी है, भक्ति भी है। योग को भक्ति भी कह सकते हैं क्योंकि एक के साथ योग लगाना उनको याद करना होता है। वह भक्त लोग भी याद करते हैं, पूजा करते हैं, गाते हैं। वह भक्ति करना कोई योग नहीं कहेंगे। समझो, जैसे मीरा थी, श्रीकृष्ण के साथ योग लगाती थी, उनको याद करती थी परन्तु उसको भक्ति कहा जाता। उनकी बुद्धि में कोई एम ऑब्जेक्ट नहीं है। इसको ज्ञान भी कहते, भक्ति भी कहते। योग लगाते हैं, एक को याद करते हैं। सतयुग में न भक्ति होती, न ज्ञान। संगम पर ज्ञान और भक्ति दोनों ही हैं और द्वापर से लेकर सिर्फ भक्ति चलती आई है। किसको याद करना, उसको भक्ति कहते। यहाँ यह ज्ञान भी है, योग भी है, भक्ति भी है। समझ सकते हैं। वह सिर्फ भक्त हैं, तत्व से योग लगाते हैं। परन्तु उनका है अनेकों से योग, इसलिए उनको भक्त कहते। तुम्हारा यह है अव्यभिचारी योग। यह ज्ञान सागर खुद बैठ पढ़ाते हैं। उनसे योग लगाना होता है। वह तो आत्मा को ही नहीं जानते। हम तो जानते हैं। परमपिता परमात्मा बाप के साथ बुद्धियोग लगाने से हम बाप के पास चले जायेंगे। वह हनूमान को याद करते हैं, तो उनका साक्षात्कार हो जाता, उनको व्यभिचारी कहा जाता। यह है अव्यभिचारी योग। सिर्फ एक बाप को याद करना है तो इसमें ज्ञान, भक्ति, वैराग्य सब इकट्ठे हैं। और वह उन्हों का सब अलग-अलग है। भक्ति अलग, ज्ञान भी सिर्फ शास्त्रों का है, वैराग्य भी हद का है। यहाँ बेहद की बात है, हम बेहद के बाप को जानते हैं इसलिए उनको याद करते हैं। वह भल शिव को याद करते परन्तु विकर्म विनाश नहीं होंगे, क्योंकि वह आक्यूपेशन को नहीं जानते। विकर्म विनाश होने का ज्ञान ही नहीं। यहाँ तो बाप की याद से विकर्म विनाश होते हैं। वहाँ काशी कलवट खाते हैं, तो उनके विकर्म विनाश होते हैं। भोगना भोगनी पड़ती है। परन्तु ऐसे नहीं कि तुम्हारे मुआफिक आहिस्ते-आहिस्ते कर्मातीत बनते हैं। नहीं, उनके विकर्म सजायें खाते-खाते खत्म होते हैं, माफ नहीं हो जाते हैं। तो यह पढ़ाई भी है, ज्ञान भी है, योग भी है, इसमें सब है। सिखलाने वाला एक ही बाप है। इनको आश्रम अथवा इन्स्टीट्युशन कहा जाता है। लिखा हुआ बड़ा अच्छा है। आगे ओम् मण्डली नाम रांग था। अभी समझ आई है। यह नाम बिल्कुल अच्छा है। कोई को भी समझा सकते हो कि ब्रह्माकुमार तो तुम भी हो। बाप है सबका रचयिता, उनको पहले-पहले सूक्ष्मवतन रचना है। ब्रह्मा, विष्णु, शंकर हैं सूक्ष्मवतनवासी, नई सृष्टि रचते हैं तो जरूर प्रजापिता ब्रह्मा चाहिए। सूक्ष्मवतन वाला तो यहाँ आ न सके। वह है सम्पूर्ण अव्यक्त। यहाँ तो साकार ब्रह्मा चाहिए ना। वह कहाँ से आये? मनुष्य इन बातों को समझ न सकें। चित्र तो हैं ना। ब्रह्मा से ब्राह्मण पैदा हुए। परन्तु ब्रह्मा आये कहाँ से। फिर एडाप्शन होती है। जैसे कोई राजा को बच्चा नहीं होता है तो एडाप्ट करते हैं। बाप भी इनको एडाप्ट करते हैं फिर नाम बदलकर रखते हैं - प्रजापिता ब्रह्मा। वह ऊपर वाला तो नीचे आ न सके। नीचे वाले को ऊपर जाना है। वह है अव्यक्त, यह है व्यक्त। तो इस रहस्य को भी अच्छी रीति समझना है क्योंकि सबका प्रश्न उठता है। कहते हैं दादा को कभी ब्रह्मा, कभी भगवान्, कभी श्रीकृष्ण कहते हैं........। अब इनको भगवान् तो कहा नहीं जाता। बाकी ब्रह्मा और श्रीकृष्ण को तो कह सकते हैं क्योंकि श्रीकृष्ण सुन्दर से श्याम बनता है। तो जब रात है तब कहेंगे ब्रह्मा, जब दिन है तब कहेंगे श्रीकृष्ण। श्रीकृष्ण की आत्मा का अभी यह अन्तिम जन्म है और यह श्रीकृष्ण है आदि का जन्म। यह क्लीयर कर लिखना पड़े। 84 जन्म राधे-कृष्ण के वा लक्ष्मी-नारायण के बताने पड़े। यहाँ फिर उनको एडाप्ट करते हैं। तो ब्रह्मा का दिन और ब्रह्मा की रात हो जाती। वही फिर लक्ष्मी-नारायण का दिन और रात। उनकी वंशावली का भी ऐसे हुआ।
तुम अब ब्राह्मण कुल के हो फिर देवता कुल के बनेंगे। तो ब्रह्माकुमार-कुमारियों का भी दिन और रात हुआ ना। यह बड़ी समझने की बातें हैं। चित्रों में भी क्लीयर है - नीचे तपस्या कर रहे हैं, अन्तिम जन्म है। ब्रह्मा आये कहाँ से? किससे पैदा हो? तो ब्रह्मा को एडाप्ट करते हैं। जैसे राजा एडाप्ट करते हैं, फिर उनको राजकुमार कहते हैं। ट्रांसफर कर देते हैं - प्रिन्स ऑफ फलाना। पहले तो प्रिन्स नहीं था। राजा ने एडाप्ट किया तो नाम डाला प्रिन्स। यह रस्म-रिवाज चलती आई है। बच्चों को यह बुद्धि में आना चाहिए। दुनिया नहीं जानती कि बाप कैसे पुरानी दुनिया का विनाश और नई दुनिया की स्थापना करते हैं? यह रोशनी तुम बच्चों को है। तुम्हारे में भी नम्बरवार हैं। आगे चलकर छोटी-छोटी बच्चियां भी बहुत तीखी होती जायेंगी क्योंकि कुमारियां हैं। लिखा हुआ भी है कि कुमारियों द्वारा बाण मरवाये। कुमारियों का चमत्कार नम्बरवन में गया है। मम्मा भी कुमारी है, सबसे तीखी गई है। कहा जाता है डॉटर शोज़ मदर। मदर तो नहीं बैठ कोई से बात करेगी। यह माँ तो हो गई गुप्त, वह मम्मा है प्रत्यक्ष। तो तुम शक्तियों अथवा बच्चों का काम है माँ का शो करना। बहुत अच्छी-अच्छी बच्चियां भी हैं, जिनका पुरुषार्थ अच्छा चलता है। कौरव सम्प्रदाय में भी किन्हों के मुख्य नाम हैं ना, जो महारथी हैं। यहाँ भी महारथियों के नाम हैं। सबसे बड़ा है शिवबाबा। ऊंच ते ऊंच भगवान्। उनका ऊंचा ठांव है। वास्तव में ठांव (रहने का स्थान) तो हम आत्माओं का भी ऊंच है। मनुष्य तो सिर्फ महिमा करते रहते, जानते कुछ भी नहीं। हम आत्मायें भी वहाँ की रहने वाली हैं। परन्तु हमको जन्म-मरण में आकर पार्ट बजाना है। वह जन्म-मरण में नहीं आते, पार्ट उनका भी है, परन्तु कैसे है - यह भी तुम जानते हो। अभी तुम बच्चे समझते हो यह शिवबाबा का रथ है। अश्व अथवा घोड़ा भी है। बाकी वह घोड़ा-गाड़ी नहीं है। यह भी जो भूले हुए हैं, यह ड्रामा में नूँध है। आधाकल्प हम भी भूल में भटकते-भटकते एकदम भटक जाते हैं। अभी रोशनी मिली है तो बहुत खबरदार हो पड़े हैं। जानते हैं यह पुरानी दुनिया ख़त्म होनी है, हमको नष्टोमोहा बनना है। कमल फूल समान गृहस्थ व्यवहार में रहते नष्टोमोहा बनने का पुरुषार्थ करना है। तोड़ तो सबसे निभाना है, साथ भी रहना है। यह भट्ठी भी बननी थी, जैसे कल्प पहले बनी थी। अभी तो कहते हैं गृहस्थ व्यवहार में रह मेहनत करनी है। यहाँ घरबार छोड़ने की बात ही नहीं। हम तो घर में बैठे हैं ना। कितने बच्चे हैं। लौकिक भी थे ना। छोड़ा कुछ भी नहीं है। संन्यासी तो जंगल में चले जाते हैं। हम तो शहर में बैठे हैं। तो उनसे तोड़ निभाना है। बाप की रचना है। बाप कमाकर बच्चे को वर्सा देते हैं। पहले तो वर्सा देते हैं काम विकार का। फिर उनसे छुड़ाकर निर्विकारी बनाना बाप का ही काम है। ऐसे भी होते हैं कहाँ बच्चे माँ बाप को ज्ञान देते हैं, कहाँ बाप बच्चों को ज्ञान देते हैं।
यह है ही राजयोग, वह है हठयोग। आत्मा को नॉलेज मिलती है परमात्मा से। मैं (ब्रह्मा) राजाओं का राजा था, अब रंक बना हूँ। रंक से राव गाया हुआ है। बच्चे जानते हैं हम जो सूर्यवंशी थे, अभी शूद्रवंशी बने हैं। यह भी समझाना पड़ता है - नर्क और स्वर्ग अलग है। मनुष्य यह नहीं जानते। तुम्हारे में भी कितने बच्चे कुछ नहीं जानते क्योंकि तकदीर में नहीं है तो पुरुषार्थ क्या करेंगे? किनकी तकदीर में कुछ नहीं है, किनकी तकदीर में सब कुछ है। तकदीर पुरुषार्थ कराती है। तकदीर नहीं है तो पुरुषार्थ क्या करेगे? एक ही स्कूल है, चलता रहता है। कोई बच्चे आधा में गिर पड़ते, कोई चलते-चलते मर पड़ते। जन्म लेना और मरना बहुत होता है। यह नॉलेज कितनी वन्डरफुल है! नॉलेज तो बहुत सहज है, बाकी कर्मातीत अवस्था को पाना इसमें ही सारी मेहनत है। जब विकर्म विनाश हों तब तो उड़ सकें। ध्यान से ज्ञान श्रेष्ठ है। ध्यान में माया के विघ्न बहुत पड़ते हैं इसलिए ध्यान से ज्ञान अच्छा है। ऐसे नहीं कि योग से ज्ञान अच्छा। ध्यान के लिए कहा जाता है। ध्यान में जाने वाले आज हैं नहीं। योग में तो कमाई होती है, विकर्म विनाश होते हैं। ध्यान में कोई कमाई नहीं है। योग और ज्ञान में कमाई है। ज्ञान और योग बिगर हेल्दी-वेल्दी बन नहीं सकते। फिर यह घूमने-फिरने की एक आदत पड़ जाती है। यह भी ठीक नहीं। ध्यान नुकसान बहुत करता है। ज्ञान भी है सेकेण्ड का। योग कोई सेकेण्ड का नहीं है। जहाँ जीना है वहाँ योग लगाते रहना है। ज्ञान तो सहज है, बाकी एवरहेल्दी, निरोगी बनना इसमें मेहनत है। सवेरे उठकर याद में बैठने में भी विघ्न बहुत पड़ते हैं। प्वाइन्ट्स निकालते हैं तो भी बुद्धि कहाँ की कहाँ चली जाती है। सबसे जास्ती तूफान तो पहले नम्बर वाले को आयेंगे ना। शिवबाबा को तो नहीं आ सकते। बाबा हमेशा समझाते रहते हैं तूफान तो बहुत आयेंगे। जितना याद में रहने की कोशिश करेंगे, उतना तूफान बहुत आयेंगे। उनसे डरना नहीं है, याद में रहना है, स्थिर होना है। तूफान कोई हिला न सके, यह अन्त की अवस्था है। यह है रूहानी रेस। शिवबाबा को याद करते रहो। यह भी समझने की और धारण करने की बातें हैं। धन दान नहीं करेंगे तो धारणा नहीं होगी। पुरुषार्थ करना चाहिए। दो बाप की प्वाइन्ट किसको समझाना बहुत इज़ी है। यह भी तुम ही जानते हो - बाप 21 जन्मों का वर्सा देते हैं। तुम कहेंगे इन लक्ष्मी-नारायण को बाप से 21 जन्मों का वर्सा मिला है। बाप ने उनको राजयोग सिखलाया और कोई मुख से कह न सके कि उन्हें भगवान् ने यह वर्सा दिया है। दुनिया में कोई किस बात में, कोई किस बात में खुश रहते। तुम जिस बात में खुश हो उसको कोई नहीं जानते। मनुष्य तो अल्पकाल क्षणभंगुर के लिए खुशी मनाते हैं। तुम हो सच्चे ब्राह्मण कुल भूषण, जो योगी और ज्ञानी हो। तुम्हारे इस अतीन्द्रिय सुख की खुशी को और कोई जान नहीं सकते। वह तो क्या-क्या माथा मारते रहते हैं। मून पर जाने का पुरुषार्थ करते हैं। बहुत डिफीकल्ट मेहनत करते हैं। उन सबकी मेहनत बरबाद हो जानी है। तुम बिना कोई तकल़ीफ के ऐसी जगह जाने का पुरुषार्थ करते हो जहाँ और कोई जा न सके। एकदम ऊंच त ऊंच परमधाम में जाते हो। अच्छा!
मीठे-मीठे सिकीलधे बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का याद-प्यार और गुडमॉर्निंग। रूहानी बाप की रूहानी बच्चों को नमस्ते।
धारणा के लिए मुख्य सार:-
1) गृहस्थ व्यवहार में रहते नष्टोमोहा भी बनना है। साथ-साथ सबसे तोड़ निभाते कमल फूल समान रहना है।
2) धारणा करने के लिए ज्ञान धन का दान जरूर करना है। ज्ञान और योग से अपनी कमाई जमा करनी है। बाकी ध्यान दीदार की आश नहीं रखनी है।
वरदान:-सन्तुष्टता के सर्टीफिकेट द्वारा भविष्य राज्य-भाग्य का तख्त प्राप्त करने वाले सन्तुष्ट-मूर्ति भव
सन्तुष्ट रहना है और सर्व को सन्तुष्ट करना है -यह स्लोगन सदा आपके मस्तक रूपी बोर्ड पर लिखा हुआ हो क्योंकि इसी सर्टीफिकेट वाले भविष्य में राज्य-भाग्य का सर्टीफिकेट लेंगे। तो रोज़ अमृतवेले इस स्लोगन को स्मृति में लाओ। जैसे बोर्ड पर स्लोगन लिखते हो ऐसे सदा अपने मस्तक के बोर्ड पर यह स्लोगन दौड़ाओ तो सभी सन्तुष्ट मूर्तियां हो जायेंगे। जो सन्तुष्ट हैं वह सदा प्रसन्न हैं।
स्लोगन:-आपस में स्नेह और सन्तुष्टता सम्पन्न व्यवहार करने वाले ही सफलता मूर्त बनते हैं। कार्यालय:-राजयोग भवन, E-5 अरेरा कॉलोनी भोपाल मध्य प्रदेश। संपर्क:-9691454063,9406564449,https://youtu.be/UrEnxY-m-Tg