10Feb.2024/ शिव बाबा की मुरली (परमात्मा की वाणी) आज की प्रातः मुरली मधुबन से।
मुरली mp1news के माध्यम से पढ़ सकते हैं, YouTube की लिंक को क्लिक कर सुन भी सकते है। “मीठे बच्चे - आत्म-अभिमानी बनने का अभ्यास करो तो दैवीगुण आते जायेंगे, क्रिमिनल ख्यालात समाप्त हो जायेंगे, अपार खुशी रहेगी''
प्रश्नः-अपनी चलन को सुधारने वा अपार खुशी में रहने के लिए कौन-सी बात सदा स्मृति में रखनी है?
उत्तर:-सदा स्मृति रहे कि हम दैवी स्वराज्य स्थापन कर रहे हैं, हम मृत्युलोक को छोड़ अमरलोक में जा रहे हैं - इससे बहुत खुशी रहेगी, चलन भी सुधरती जायेगी क्योंकि अमरलोक नई दुनिया में जाने के लिए दैवीगुण जरूर चाहिए। स्वराज्य के लिए बहुतों का कल्याण भी करना पड़े, सबको रास्ता बताना पड़े।
ओम् शान्ति। बच्चों को अपने को यहाँ का नहीं समझना चाहिए। तुमको मालूम हुआ है हमारा जो राज्य था जिसको रामराज्य वा सूर्यवंशी राज्य कहते हैं उसमें कितनी सुख-शान्ति थी। अब हम फिर से देवता बन रहे हैं। आगे भी बने थे। हम ही सर्वगुण सम्पन्न.... दैवीगुण वाले थे। हम अपने राज्य में थे। अभी रावण राज्य में हैं। हम अपने राज्य में बहुत सुखी थे। तो अन्दर में बहुत खुशी और निश्चय होना चाहिए क्योंकि तुम फिर से अपनी राजधानी में जा रहे हो। रावण ने तुम्हारा राज्य छीन लिया है। तुम जानते हो हमारा अपना सूर्यवंशी राज्य था। हम रामराज्य के थे, हम ही दैवीगुण वाले थे, हम ही बहुत सुखी थे फिर रावण ने हमारा राज्य-भाग्य छीन लिया। अब बाप आकर अपना और पराये का राज़ समझाते हैं। आधाकल्प हम रामराज्य में थे फिर आधाकल्प हम रावण राज्य में रहे। बच्चों को हर बात का निश्चय हो तो खुशी में रहें और चलन भी सुधरे। अब पराये राज्य में हम बहुत दु:खी हैं। हिन्दू भारतवासी समझते हैं हम पराये (फॉरेन) राज्य में दु:खी थे, अब सुखी हैं अपने राज्य में। परन्तु यह है अल्पकाल काग विष्टा समान सुख। तुम बच्चे अभी सदा काल के सुख की दुनिया में जा रहे हो। तो तुम बच्चों को अन्दर बहुत खुशी रहनी चाहिए। ज्ञान में नहीं हैं तो जैसे ठिक्कर पत्थरबुद्धि हैं। तुम बच्चे जानते हो हम अवश्य अपना राज्य लेंगे, इसमें तकलीफ की कोई बात नहीं। राज्य लिया था फिर आधा कल्प राज्य किया फिर रावण ने हमारी कला काया ही चट कर दी। कोई अच्छे बच्चे की जब चलन बिगड़ जाती है तो कहा जाता है तुम्हारी कला काया चट हो गई है क्या? यह हैं बेहद की बातें। समझना चाहिए माया ने हमारी कला काया चट कर दी। हम गिरते ही आये। अब बेहद का बाप दैवीगुण सिखलाते हैं। तो खुशी का पारा चढ़ना चाहिए। टीचर नॉलेज देते हैं तो स्टूडेन्ट को खुशी होती है। यह है बेहद की नॉलेज। अपने को देखना है - मेरे में कोई आसुरी गुण तो नहीं हैं? सम्पूर्ण नहीं बनेंगे तो सजायें खानी पड़ेंगी। परन्तु हम सजायें खायें ही क्यों? इसलिए बाप, जिससे यह राज्य मिलता है उसको याद करना है। दैवीगुण जो हमारे में थे वह अब धारण करने हैं। वहाँ यथा राजा-रानी तथा प्रजा सबमें दैवीगुण थे। दैवीगुणों को तो समझते हो ना। अगर कोई समझते नहीं तो लायेंगे कैसे? गाते भी हैं सर्वगुण सम्पन्न... तो पुरुषार्थ कर ऐसा बनना है। बनने में मेहनत लगती है। क्रिमिनल आई हो जाती है। बाप कहते हैं अपने को आत्मा समझो तो क्रिमिनल ख्यालात उड़ जायेंगे। युक्तियां तो बाप बहुत समझाते हैं, जिसमें दैवीगुण हैं उनको देवता कहा जाता है, जिनमें नहीं हैं उनको मनुष्य कहा जाता है। हैं तो दोनों ही मनुष्य। परन्तु देवताओं को पूजते क्यों हैं? क्योंकि उनमें दैवीगुण हैं और उनके (मनुष्यों के) कर्तव्य बन्दर जैसे हैं। कितना आपस में लड़ाई-झगड़ा आदि करते हैं। सतयुग में ऐसी बातें होती नहीं। यहाँ तो होती है। जरूर अपनी भूल होती है तो सहन करना पड़ता है। आत्म-अभिमानी नहीं हैं तो सहन करना पड़ता है। तुम जितना आत्म-अभिमानी बनते जायेंगे उतने दैवीगुण भी धारण होंगे। अपनी जांच करनी है कि हमारे में दैवी गुण हैं? बाप सुखदाता है तो बच्चों का काम है सबको सुख देना। अपने दिल से पूछना है कि हम किसको दु:ख तो नहीं देते हैं? परन्तु कोई-कोई की आदत होती है जो दु:ख देने बिगर रह नहीं सकते। बिल्कुल सुधरते नहीं जैसे जेल बर्डस। वह जेल में ही अपने को सुखी समझते हैं। बाप कहते हैं वहाँ तो जेल आदि होता ही नहीं, पाप होता ही नहीं जो जेल में जाना पड़े। यहाँ जेल में सजायें भोगनी पड़ती हैं। अभी तुम समझते हो हम जब अपने राज्य में थे तो बहुत साहूकार थे, जो ब्राह्मण कुल वाले होंगे वह ऐसे ही समझेंगे कि हम अपना राज्य स्थापन कर रहे हैं। वह एक ही हमारा राज्य था, जिसको देवताओं का राज्य कहा जाता है। आत्मा को जब ज्ञान मिलता है तो खुशी होती है। जीव आत्मा जरूर कहना पड़े। हम जीव आत्मा जब देवी-देवता धर्म की थी तो सारे विश्व पर हमारा राज्य था। यह नॉलेज है तुम्हारे लिए। भारतवासी थोड़ेही समझते हैं कि हमारा राज्य था, हम भी सतोप्रधान थे। तुम ही यह सारी नॉलेज समझते हो। तो हम ही देवता थे और हमको ही अब बनना है। भल विघ्न भी पड़ते हैं परन्तु तुम्हारी दिन-प्रतिदिन उन्नति होती जायेगी। तुम्हारा नाम बाला होता जायेगा। सब समझेंगे यह अच्छी संस्था है, अच्छा काम कर रहे हैं। रास्ता भी बहुत सहज बताते हैं। कहते हैं तुम ही सतोप्रधान थे, देवता थे, अपनी राजधानी में थे। अब तमोप्रधान बने हो और तो कोई अपने को रावण राज्य में समझते नहीं हैं।
तुम जानते हो हम कितने स्वच्छ थे, अब तुच्छ बने हैं। पुनर्जन्म लेते-लेते पारसबुद्धि से पत्थरबुद्धि बन पड़े हैं। अब हम अपना राज्य स्थापन कर रहे हैं तो तुमको उछलना चाहिए, पुरुषार्थ में लग जाना चाहिए। जो कल्प पहले लगे होंगे वे अब भी लगेंगे जरूर। नम्बरवार पुरुषार्थ अनुसार हम अपना दैवी राज्य स्थापन कर रहे हैं। यह भी तुम घड़ी-घड़ी भूल जाते हो। नहीं तो अन्दर बहुत खुशी रहनी चाहिए। एक-दो को यही याद दिलाओ कि मनमनाभव। बाप को याद करो जिससे ही अब राजाई लेते हैं। यह कोई नई बात नहीं है। कल्प-कल्प हमको बाप श्रीमत देते हैं, जिससे हम दैवीगुण धारण करते हैं। नहीं तो सजायें खाकर फिर कम पद लेंगे। यह बड़ी भारी लॉटरी है। अब पुरुषार्थ कर ऊंच पद पाया तो कल्प-कल्पान्तर पाते ही रहेंगे। बाप कितना सहज समझाते हैं। प्रदर्शनी में भी यही समझाते रहो कि तुम भारतवासी ही देवताओं की राजधानी के थे फिर पुनर्जन्म लेते-लेते सीढ़ी नीचे उतरते-उतरते ऐसे बने हो। कितना सहज समझाते हैं। सुप्रीम बाप, सुप्रीम टीचर, सुप्रीम गुरू है ना। तुम कितने ढेर स्टूडेन्ट हो, दौड़ी लगाते रहते हो। बाबा भी लिस्ट मंगाते रहते हैं कितने निर्विकारी पवित्र बने हैं?
बच्चों को समझाया गया है कि भृकुटी के बीच में आत्मा चमकती है। बाप कहते हैं मैं भी यहाँ आकर बैठता हूँ। अपना पार्ट बजाता हूँ। मेरा पार्ट ही है पतितों को पावन बनाना। ज्ञान सागर हूँ। बच्चे पैदा होते हैं, कोई तो बहुत अच्छे होते हैं, कोई खराब भी निकल पड़ते हैं। फिर आश्चर्यवत् सुनन्ती, कथन्ती, भागन्ती हो जाते हैं। अरे माया, तुम कितनी प्रबल हो। फिर भी बाप कहते हैं भागन्ती होकर भी कहाँ जायेंगे? यही एक बाप तारने वाला है। एक बाप है सद्गति दाता, बाकी इस ज्ञान को कोई तो बिल्कुल जानते ही नहीं। जिसने कल्प पहले माना है, वही मानेंगे। इसमें अपनी चलन को बहुत सुधारना पड़ता है, सर्विस करनी पड़ती है। बहुतों का कल्याण करना है। बहुतों को जाकर रास्ता बताना है। बहुत-बहुत मीठी जबान से समझाना है कि तुम भारतवासी ही विश्व के मालिक थे। अब फिर तुम इस प्रकार से अपना राज्य ले सकते हो। यह तो तुम समझते हो बाप जो समझाते हैं, ऐसा कोई समझा न सके फिर भी चलते-चलते माया से हार खा लेते हैं। बाप खुद कहते हैं विकारों पर जीत पाने से ही तुम जगतजीत बनेंगे। यह देवतायें जगतजीत बने हैं। जरूर उन्हों ने ऐसा कर्म किया है। बाप ने कर्मों की गति भी बताई है। रावण राज्य में कर्म विकर्म ही होते हैं, राम राज्य में कर्म अकर्म होते हैं। मूल बात है काम पर जीत पाकर जगतजीत बनने की। बाप को याद करो, अब वापिस घर जाना है। हमको 100 परसेन्ट सरटेन है कि हम अपना राज्य लेकर ही छोड़ेंगे। परन्तु राज्य यहाँ नहीं करेंगे। यहाँ राज्य लेते हैं। राज्य करेंगे अमरलोक में। अब मृत्युलोक और अमरलोक के बीच में हैं, यह भी भूल जाते हैं इसलिए बाप घड़ी-घड़ी याद दिलाते हैं। अब यह पक्का निश्चय है कि हम अपनी राजधानी में जायेंगे। यह पुरानी राजधानी खत्म जरूर होनी है। अब नई दुनिया में जाने के लिए दैवीगुण जरूर धारण करने हैं। अपने से बातें करनी है। अपने को आत्मा समझना है क्योंकि अभी ही हमको वापस जाना है। तो अपने को आत्मा भी अभी ही समझना है फिर कभी वापिस थोड़ेही जाना है जो यह ज्ञान मिलेगा। वहाँ 5 विकार ही नहीं होंगे जो हम योग लगायें। योग तो इस समय लगाना होता है पावन बनने के लिए। वहाँ तो सब सुधरे हुए हैं। फिर धीरे-धीरे कला कम होती जाती है। यह तो बहुत सहज है, क्रोध भी किसको दु:ख देता है ना। मुख्य है देह-अभिमान। वहाँ तो देह-अभिमान होता ही नहीं। आत्म-अभिमानी होने से क्रिमिनल आई नहीं रहती। सिविल आई बन जाती है। रावण राज्य में क्रिमिनल आई बन जाती है। तुम जानते हो हम अपने राज्य में बहुत सुखी रहते हैं। कोई काम नहीं, कोई क्रोध नहीं, इस पर शुरू का गीत भी बना हुआ है। वहाँ यह विकार होते नहीं। हमारी अनेक बार यह हार और जीत हुई है। सतयुग से कलियुग तक जो कुछ हुआ वह फिर रिपीट होना है। बाप अथवा टीचर के पास जो नॉलेज है वह तुमको सुनाते रहते हैं। यह रूहानी टीचर भी वन्डरफुल है। ऊंचे से ऊंचा भगवान्, ऊंचे से ऊंचा टीचर भी है और हमको भी ऊंचे से ऊंचा देवता बनाते हैं। तुम खुद देख रहे हो - बाप कैसे डिटीज्म स्थापन कर रहे हैं। तुम खुद ही देवता बन रहे हो। अभी तो सभी अपने को हिन्दू कहते रहते हैं। उन्हों को भी समझाया जाता है कि वास्तव में आदि सनातन देवी-देवता धर्म है और सबका धर्म चलता रहता है। यह एक ही देवी-देवता धर्म है, जो प्राय:लोप हो गया है। यह तो बहुत पवित्र धर्म है। इन जैसा पवित्र धर्म कोई होता नहीं। अब पवित्र न होने कारण कोई भी अपने को देवता नहीं कहला सकते हैं। तुम समझा सकते हो कि हम आदि सनातन देवी-देवता धर्म के थे तब तो देवताओं को पूजते हैं। क्राइस्ट को पूजने वाले क्रिश्चियन ठहरे, बुद्ध को पूजने वाले बौद्धी ठहरे, देवताओं को पूजने वाले देवता ठहरे। फिर अपने को हिन्दू क्यों कहलाते हो? युक्ति से समझाना है। सिर्फ कहेंगे हिन्दू धर्म, धर्म नहीं है, तो बिगड़ेंगे। बोलो, हिन्दू आदि सनातन धर्म के थे तो कुछ समझें कि आदि सनातन धर्म तो कोई हिन्दू नहीं है। आदि सनातन अक्षर ठीक है। देवता पवित्र थे, यह अपवित्र हैं इसलिए अपने को देवता नहीं कहला सकते हैं। कल्प-कल्प ऐसे होता है, इनके राज्य में कितने साहूकार थे। अब तो कंगाल बन पड़े हैं। वह पद्मापद्मपति थे। बाप युक्तियां बहुत अच्छी देते हैं। पूछा जाता है तुम सतयुग में रहने वाले हो या कलियुग में? कलियुग के हो तो जरूर नर्कवासी हो। सतयुग में रहने वाले तो स्वर्गवासी देवता होंगे। ऐसा प्रश्न पूछेंगे तो समझेंगे कि प्रश्न पूछने वाला जरूर खुद ट्रान्सफर कर देवता बना सकते होंगे। और तो कोई पूछ नहीं सकते। वह भक्ति मार्ग ही अलग है। भक्ति का फल क्या है? वह है ज्ञान। सतयुग-त्रेता में भक्ति होती नहीं। ज्ञान से आधा कल्प दिन, भक्ति से आधा कल्प रात। मानने वाले होंगे तो मानेंगे। न मानने वाले तो ज्ञान को भी नहीं मानेंगे तो भक्ति को भी नहीं मानेंगे। सिर्फ पैसा कमाना ही जानते हैं।
तुम बच्चे तो योगबल से अब राजाई स्थापन कर रहे हो श्रीमत पर। फिर आधा कल्प के बाद राज्य गँवाते भी हो। यह चक्र चलता ही रहता है। अच्छा!
मीठे-मीठे सिकीलधे बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का याद-प्यार और गुडमॉर्निग। रूहानी बाप की रूहानी बच्चों को नमस्ते।
धारणा के लिए मुख्य सार:-
1) बहुतों का कल्याण करने के लिए अपनी जबान बहुत मीठी बनानी है। मीठी जबान से सर्विस करनी है। सहनशील बनना है।
2) कर्मो की गहन गति को समझ विकारों पर जीत पानी है। जगतजीत देवता बनना है। आत्म-अभिमानी बन क्रिमिनल दृष्टि को सिविल बनाना है।
वरदान:- श्रेष्ठ कर्म द्वारा दिव्य गुण रूपी प्रभू प्रसाद बांटने वाले फरिश्ता सो देवता भव
वर्तमान समय चाहे अज्ञानी आत्मायें हैं, चाहे ब्राह्मण आत्मायें हैं, दोनों को आवश्यकता गुणदान की है। तो अब इस विधि को स्वयं में वा ब्राह्मण परिवार में तीव्र बनाओ। ये दिव्य गुण सबसे श्रेष्ठ प्रभू प्रसाद है, इस प्रसाद को खूब बांटो, जैसे स्नेह की निशानी एक दो को टोली खिलाते हो ऐसे दिव्य गुणों की टोली खिलाओ तो इस विधि से फरिश्ता सो देवता बनने का लक्ष्य सहज सबमें प्रत्यक्ष दिखाई देगा।
स्लोगन:-योग रूपी कवच को पहनकर रखो तो माया रूपी दुश्मन वार नहीं कर सकता। कार्यालय:-राजयोग भवन, E-5 अरेरा कॉलोनी भोपाल मध्य प्रदेश। संपर्क:-9691454063,9406564449,https://youtu.be/7uLYt-z0XkA?