06सितंबर2024/ शिव बाबा की मुरली (परमात्मा की वाणी) आज की प्रातः मुरली मधुबन से।
मुरली mp1news के माध्यम से पढ़ सकते हैं, YouTube को क्लिक कर सुन भी सकते है। “मीठे बच्चे - तुम्हारी यह पढ़ाई सोर्स ऑफ इनकम है, इस पढ़ाई से 21 जन्मों के लिए कमाई का प्रबन्ध हो जाता है''
प्रश्नः-मुक्तिधाम में जाना कमाई है या घाटा?
उत्तर:-भक्तों के लिए यह भी कमाई है क्योंकि आधाकल्प से शान्ति-शान्ति मांगते आये हैं। बहुत मेहनत के बाद भी शान्ति नहीं मिली। अब बाप द्वारा शान्ति मिलती है अर्थात् मुक्तिधाम में जाते हैं तो यह भी आधाकल्प की मेहनत का फल हुआ इसलिए इसे भी कमाई कहेंगे, घाटा नहीं। तुम बच्चे तो जीवनमुक्ति में जाने का पुरूषार्थ करते हो। तुम्हारी बुद्धि में अभी सारे वर्ल्ड की हिस्ट्री-जाग्रॉफी नाच रही है।
ओम् शान्ति। मीठे-मीठे रूहानी बच्चों को रूहानी बाप ने यह तो समझाया है कि रूह ही सब कुछ समझती है। इस समय तुम बच्चों को रूहानी दुनिया में बाप ले जाते हैं। उनको कहा जाता है रूहानी दैवी दुनिया, इसको कहा जाता है जिस्मानी दुनिया, मनुष्यों की दुनिया। बच्चे समझते हैं दैवी दुनिया थी, वह दैवी मनुष्यों की पवित्र दुनिया थी। अभी मनुष्य अपवित्र हैं इसलिए उन देवताओं का गायन पूजन करते हैं। यह स्मृति है कि बरोबर पहले झाड़ में एक ही धर्म होगा। विराट रूप में झाड़ पर भी समझाना है। इस झाड़ का बीजरूप ऊपर में है। झाड़ का बीज है बाप, फिर जैसा बीज वैसा फल अर्थात् पत्ते निकलते हैं। यह भी वन्डर है ना। कितनी छोटी चीज़ कितना फल देती है। कितना उनका रूप बदलता जाता है। इस मनुष्य सृष्टि रूपी झाड़ को कोई नहीं जानता, इसको कहा जाता है कल्प वृक्ष, इसका बस गीता में ही वर्णन है। सब जानते हैं गीता ही नम्बरवन धर्म का शास्त्र है। शास्त्र भी नम्बरवार तो होते हैं ना। कैसे नम्बरवार धर्मों की स्थापना होती है, यह भी सिर्फ तुम ही समझते हो, और कोई में भी यह ज्ञान होता नहीं। तुम्हारी बुद्धि में है पहले-पहले किस धर्म का झाड़ होता है फिर उनमें और धर्मों की वृद्धि कैसे होती है। इसको कहा जाता है विराट नाटक। बच्चों की बुद्धि में सारा झाड़ है। झाड़ की उत्पत्ति कैसे होती है, मुख्य बात है यह। देवी-देवताओं का झाड़ अभी नहीं है और सब टाल-टालियां खड़ी हैं। बाकी आदि सनातन देवी-देवता धर्म का फाउन्डेशन है नहीं। यह भी गायन है - एक आदि सनातन देवी-देवता धर्म की स्थापना करते हैं, बाकी और सब धर्म विनाश हो जाते हैं। अभी तुम जानते हो कितना छोटा-सा दैवी झाड़ होगा। फिर और सब इतने धर्म होंगे ही नहीं। झाड़ पहले छोटा होता है फिर बड़ा होता जाता है। बढ़ते-बढ़ते अभी कितना बड़ा हो गया है। अभी इनकी आयु पूरी होती है, इनसे बनेन ट्री का मिसाल बहुत अच्छा समझाते हैं। यह भी गीता का ज्ञान है जो बाप तुम्हें सम्मुख बैठ सुनाते हैं, जिससे तुम राजाओं का राजा बनते हो। फिर भक्ति मार्ग में यह गीता शास्त्र आदि बनेंगे। यह अनादि ड्रामा बना हुआ है। फिर भी ऐसे ही होगा। फिर जो-जो धर्म स्थापन होंगे उनका अपना शास्त्र होगा। सिक्ख धर्म का अपना शास्त्र, क्रिश्चियन और बौद्धियों का अपना शास्त्र होगा। अभी तुम्हारी बुद्धि में सारे वर्ल्ड की हिस्ट्री-जॉग्राफी नाच रही है। बुद्धि ज्ञान डांस कर रही है। तुम सारे झाड़ को जान गये हो। कैसे-कैसे धर्म आते हैं, कैसे वृद्धि को पाते हैं। फिर अपना एक धर्म स्थापन होता है, बाकी खलास हो जाते हैं। गाते हैं ना - ज्ञान सूर्य प्रगटा.... अभी बिल्कुल अन्धियारा है ना। कितने ढेर मनुष्य हैं, फिर यह इतने सब होंगे ही नहीं। इन लक्ष्मी-नारायण के राज्य में यह थे नहीं। फिर एक धर्म स्थापन होना ही है। यह नॉलेज बाप ही आकर सुनाते हैं। तुम बच्चे कमाई के लिए कितनी नॉलेज आकर पढ़ते हो। बाप टीचर बनकर आते हैं तो आधाकल्प तुम्हारी कमाई का प्रबन्ध हो जाता है। तुम बहुत धनवान बन जाते हो। तुम जानते हो अभी हम पढ़ रहे हैं। यह है अविनाशी ज्ञान रत्नों की पढ़ाई। भक्ति को अविनाशी ज्ञान रत्न नहीं कहेंगे। भक्ति में मनुष्य जो कुछ पढ़ते हैं, उनसे घाटा ही होता है। रत्न नहीं बनते। ज्ञान रत्नों का सागर एक बाप को ही कहा जाता है। बाकी वह है भक्ति। उसमें कोई भी एम आब्जेक्ट है नहीं। कमाई है नहीं। कमाई के लिए तो स्कूल में पढ़ते हैं। फिर भक्ति करने के लिए गुरू के पास जाते हैं। कोई जवानी में गुरू करते हैं, कोई बुढ़ापे में गुरू करते हैं। कोई छोटेपन में ही संन्यास ले लेते हैं। कुम्भ के मेले पर कितने ढेर आते हैं। सतयुग में तो यह कुछ भी नहीं होगा। तुम बच्चों की स्मृति में सब बातें आ गई हैं। रचता और रचना के आदि-मध्य-अन्त को तुम जान गये हो। उन्होंने तो कल्प की आयु ही बड़ी कर दी है। ईश्वर सर्वव्यापी कह दिया है। ज्ञान का पता नहीं है। बाप आकर अज्ञान नींद से सुजाग करते हैं। अभी तुमको ज्ञान की धारणा होती जाती है। बैटरी भरती जाती है। ज्ञान से है कमाई, भक्ति से है घाटा। टाइम पर जब घाटे का समय पूरा होता है तो फिर बाप कमाई कराने आते हैं। मुक्ति में जाना - वह भी कमाई है। शान्ति तो सब मांगते रहते हैं। शान्ति देवा कहने से बुद्धि बाप तरफ चली जाती है। कहते हैं - विश्व में शान्ति हो, परन्तु वह कैसे होगी - यह किसको भी पता नहीं है। शान्तिधाम, सुखधाम अलग होते हैं - यह भी नहीं जानते हैं। जो पहला नम्बर है, उनको भी कुछ पता नहीं था। अभी तुमको सारी नॉलेज है। तुम जानते हो - हम इस कर्म-क्षेत्र पर कर्म का पार्ट बजाने आये हैं। कहाँ से आये हैं? ब्रह्मलोक से। निराकारी दुनिया से आये हैं इस साकारी दुनिया में पार्ट बजाने। हम आत्मा दूसरी जगह की रहने वाली हैं। यहाँ यह 5 तत्वों का शरीर रहता है। शरीर है तब हम बोल सकते हैं। हम चैतन्य पार्टधारी हैं। अभी तुम ऐसे नहीं कहेंगे कि इस ड्रामा के आदि-मध्य-अन्त को हम नहीं जानते हैं। आगे नहीं जानते थे। अपने बाप को, अपने घर को, अपने रूप को यथार्थ रीति नहीं जानते थे। अभी जानते हैं आत्मा कैसे पार्ट बजाती रहती है। स्मृति आई है। पहले स्मृति नहीं थी।
तुम जानते हो सच्चा बाप ही सच सुनाते हैं, जिससे हम सचखण्ड के मालिक बन जाते हैं। सच के ऊपर भी सुखमनी में है। सत कहा जाता है - सचखण्ड को। देवतायें सब सच बोलने वाले होते हैं। सच सिखलाने वाला है बाप। उनकी महिमा देखो कितनी है। गाई हुई महिमा तुमको काम में आती है। शिवबाबा की महिमा करते हैं। वही झाड़ के आदि-मध्य-अन्त को जानते हैं। सच बाप सुनाते हैं तो तुम बच्चे सच्चे बन जाते हो। सचखण्ड भी बन जाता है। भारत सचखण्ड था। नम्बरवन ऊंच ते ऊंच तीर्थ भी यह है क्योंकि सर्व की सद्गति करने वाला बाप भारत में ही आते हैं। एक धर्म की स्थापना होती है, बाकी सबका विनाश हो जाता है। बाप ने समझाया है - सूक्ष्मवतन में कुछ है नहीं। यह सब साक्षात्कार होते हैं। भक्ति मार्ग में भी साक्षात्कार होता है। साक्षात्कार नहीं होता तो इतने मन्दिर आदि कैसे बनते! पूजा क्यों होती। साक्षात्कार करते हैं, फील करते हैं यह चैतन्य थे। बाप समझाते हैं - भक्ति मार्ग में जो कुछ मन्दिर आदि बनते हैं, जो तुमने सुना देखा है, वह सब रिपीट होगा। चक्र फिरता ही रहता है। ज्ञान और भक्ति का खेल बना हुआ है। हमेशा कहते हैं ज्ञान, भक्ति, वैराग्य। परन्तु डीटेल कुछ नहीं जानते। बाप बैठ समझाते हैं - ज्ञान है दिन, भक्ति है रात। वैराग्य है रात का। फिर दिन होता है। भक्ति में है दु:ख इसलिए उसका वैराग्य। सुख का तो वैराग्य नहीं कहेंगे। संन्यास आदि भी दु:ख के कारण लेते हैं। समझते हैं पवित्रता में सुख है इसलिए स्त्री को त्याग चले जाते हैं। आजकल तो धनवान भी बन गये हैं क्योंकि सम्पत्ति बिगर तो सुख मिल न सके। माया वार कर जंगल से फिर शहर में ले आती है। विवेकानन्द और रामकृष्ण भी दो बड़े संन्यासी होकर गये हैं। संन्यास की ताकत रामकृष्ण में थी। बाकी भक्ति का समझाना करना, वह विवेकानन्द का था। दोनों की पुस्तकें हैं। पुस्तक जब लिखते हैं तो एकाग्रचित हो बैठ लिखते हैं। रामकृष्ण जब अपनी बायोग्राफी बैठ लिखते थे तो शिष्य को भी कहा तुम जाकर दूर बैठो। था बहुत तीखा कड़ा संन्यासी, नाम भी बहुत है। बाप ऐसे नहीं कहते कि स्त्री को माँ कहो। बाप तो कहते हैं उनको भी आत्मा समझो। आत्मायें तो सब भाई-भाई हैं। संन्यासियों की बात अलग है, उसने स्त्री को माँ समझा। माँ की बैठ बड़ाई की है। यह ज्ञान का रास्ता है, वैराग्य की बात अलग है। वैराग्य में आकर स्त्री को माँ समझा। माता अक्षर में क्रिमिनल आई नहीं होगी। बहन में भी क्रिमिनल दृष्टि जा सकती है, माता में कभी खराब ख्याल नहीं जायेंगे। बाप की बच्ची में भी क्रिमिनल दृष्टि जा सकती है, माँ में कभी नहीं जायेगी। संन्यासी स्त्री को माँ समझने लगा। उनके लिए ऐसे नहीं कहते कि दुनिया कैसे चलेगी, पैदाइस कैसे होगी? वह तो एक को वैराग्य आया, माँ कह दिया। उनकी महिमा देखो कितनी है। यहाँ बहन-भाई कहने से भी बहुतों की दृष्टि जाती है इसलिए बाबा कहते हैं - भाई-भाई समझो। यह है ज्ञान की बात। वह है एक की बात, यहाँ तो प्रजापिता ब्रह्मा की सन्तान ढेर भाई-बहन हैं ना। बाप बैठ सब बातें समझाते हैं। यह भी तो शास्त्र आदि पढ़ा हुआ है। वह धर्म ही अलग है निवृत्ति मार्ग का, सिर्फ पुरूषों के लिए है। वह है हद का वैराग्य, तुमको तो सारी बेहद की दुनिया से वैराग्य है। संगम पर ही बाप आकर तुम्हें बेहद की बातें समझाते हैं। अभी इस पुरानी दुनिया से वैराग्य करना है। यह बहुत पतित छी-छी दुनिया है। यहाँ शरीर पावन हो न सके। आत्मा को नया शरीर सतयुग में ही मिल सकता है। भल यहाँ आत्मा पवित्र बनती है, परन्तु शरीर फिर भी अपवित्र रहता है, जब तक कर्मातीत अवस्था हो। सोने में खाद पड़ती है तो जेवर भी खाद वाला बनता है। खाद निकल जाए तो जेवर भी सच्चा बनेगा। इन लक्ष्मी-नारायण की आत्मा और शरीर दोनों सतोप्रधान हैं। तुम्हारी आत्मा और शरीर दोनों ही तमोप्रधान काले हैं। आत्मा काम चिता पर बैठ काली बन गई है। बाप कहते हैं फिर हम आकर सांवरे से गोरा बनाते हैं। यह ज्ञान की सारी बात है। बाकी पानी आदि की बात नहीं। सब काम चिता पर बैठ पतित बन पड़े हैं इसलिए राखी बंधवाई जाती है कि पावन बनने की प्रतिज्ञा करो।
बाप कहते हैं हम आत्माओं से बात करते हैं। मैं आत्माओं का बाप हूँ, जिसको तुम याद करते आये हो - बाबा आओ, हमको सुखधाम में ले चलो। दु:ख हरो, कलियुग में होते हैं अपार दु:ख। बाप समझाते हैं तुम काम चिता पर बैठ काले तमोप्रधान हो गये हो। अब मैं आया हूँ - काम चिता से उतार ज्ञान चिता पर बिठाने के लिए। अब पवित्र बन स्वर्ग में चलना है। बाप को याद करना है। बाप कशिश करते हैं। बाबा के पास युगल आते हैं - एक को कशिश होती है, दूसरे को नहीं होती। पुरूष ने फट से कह दिया - हम इस अन्तिम जन्म में पवित्र रहेंगे, काम चिता पर नहीं चढ़ेंगे। ऐसे नहीं कि निश्चय हो गया। निश्चय अगर होता तो बेहद बाप को पत्र लिखते, कनेक्शन में रहते। सुना है पवित्र रहते हैं, अपने धन्धे आदि में ही मस्त रहते हैं। बाप की याद ही कहाँ है। ऐसे बाप को तो बहुत याद करना चाहिए। स्त्री-पुरूष का आपस में कितना प्यार होता है, पति को कितना याद करती है। बेहद के बाप को तो सबसे जास्ती याद करना चाहिए। गायन भी है ना - प्यार करो चाहे ठुकराओ, हम हाथ कभी नहीं छोड़ेंगे। ऐसे नहीं, यहाँ आकर रहना है, वह तो फिर संन्यास हो गया। घरबार छोड़ यहाँ आकर रहें। तुमको तो कहा जाता है, गृहस्थ व्यवहार में रहते पवित्र बनो। यह पहले तो भट्ठी बननी थी, जिससे इतने तैयार हो निकले, उनका भी बहुत अच्छा वृतान्त हैं। जो बाप का बनकर अन्दर (यज्ञ में) रहकरके रूहानी सर्विस नहीं करते वह जाकर दास-दासियां बनते हैं फिर पिछाड़ी में नम्बरवार पुरूषार्थ अनुसार ताज मिल जाता है। उन्हों का भी घराना होता है, प्रजा में नहीं आ सकते। कोई बाहर का आए अन्दर वाला नहीं बन सकता। वल्लभाचारी बाहर वालों को कभी अन्दर आने नहीं देते हैं। यह सब समझने की बातें हैं। ज्ञान है सेकण्ड का, फिर बाप को ज्ञान का सागर क्यों कहा जाता है? समझाते ही रहते हैं पिछाड़ी तक समझाते ही रहेंगे। जब राजधानी स्थापन हो जायेगी तुम कर्मातीत अवस्था में आ जायेंगे फिर ज्ञान पूरा हो जायेगा। है सेकण्ड की बात। परन्तु फिर समझाना पड़ता है। हद के बाप से हद का वर्सा, बेहद का बाप विश्व का मालिक बना देते हैं। तुम सुखधाम में जायेंगे तो बाकी सब शान्तिधाम में चले जायेंगे। वहाँ तो है ही सुख ही सुख। यह तो खातिरी है - बाप आये हैं। हम नई दुनिया के मालिक बन रहे हैं - राजयोग की पढ़ाई से। अच्छा!
मीठे-मीठे सिकीलधे बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का याद-प्यार और गुडमॉर्निंग। रूहानी बाप की रूहानी बच्चों को नमस्ते।
धारणा के लिए मुख्य सार:-
1) इस पतित छी-छी दुनिया से बेहद का वैराग्य रख आत्मा को पावन बनाने का पूरा-पूरा पुरूषार्थ करना है। एक बाप की ही कशिश में रहना है।
2) ज्ञान की धारणा से अपनी बैटरी भरनी है। ज्ञान रत्नों से स्वयं को धनवान बनाना है। अभी कमाई का समय है इसलिए घाटे से बचना है।
वरदान:-ज्ञान रत्नों को धारण कर व्यर्थ को समाप्त करने वाले होलीहंस भव
होलीहंस की दो विशेषतायें हैं - एक है ज्ञान रत्न चुगना और दूसरा निर्णय शक्ति द्वारा दूध और पानी को अलग करना। दूध और पानी का अर्थ है - समर्थ और व्यर्थ का निर्णय। व्यर्थ को पानी के समान कहते हैं और समर्थ को दूध समान। तो व्यर्थ को समाप्त करना अर्थात् होलीहंस बनना। हर समय बुद्धि में ज्ञान रत्न चलते रहे, मनन चलता रहे तो रत्नों से भरपूर हो जायेंगे।
स्लोगन:-सदा अपने श्रेष्ठ पोज़ीशन में स्थित रह ऑपोज़ीशन को समाप्त करने वाले ही विजयी आत्मा हैं। कार्यालय:-राजयोग भवन, E-5 अरेरा कॉलोनी भोपाल मध्य प्रदेश। संपर्क:-9691454063,9406564449,https://youtu.be/g-0Ca3HgDh4?