यदि प्रार्थना सच्ची हो तो परमपिता परमेश्वर उस प्रार्थना को जरूर ही सुनते हैं। परमपिता परमेश्वर अत्यंत कृपालु और दयालु हैं, परंतु प्रार्थना के लिए भी हृदय का पवित्र और निर्मल होना अत्यंत आवश्यक है। मन का पवित्र होना, अहंकार और अभिमान से रहित होना नितांत आवश्यक है। ऐसे पवित्र-हृदय-अंत: करण से उत्पन्न हुए भाव ही प्रार्थना हैं। हृदय की पवित्रता का अर्थ है अपने आपको सांसारिक तुच्छ विषय-वासनाओं की आसक्तियों से मुक्त कर लेना। सब तरह की आसक्ति से रहित होना ही हृदय की पवित्रता है। किसी तपस्वी ने ठीक ही कहा है- सच्चे-वास्तविक जीवन को पाने की आकांक्षा उत्पन्न होना ही प्रार्थना है। हमारे भीतर हृदय में जिसकी खोज होगी, भीतर जिस चीज को पाने की प्यास होगी- तो, ही हम उस दिशा में जा सकेंगे। प्रार्थना होती है आत्म बोध से। आत्मबोध में ही परमार्थ की प्यास जगती है और तुच्छ स्वार्थी का परित्याग होता है। 
प्रार्थना है- परिपूर्ण समर्पण, अपने अहंकार के बोझ को अपने सिर से उतार फेंकना और उसके पावन चरणों में अपना सिर झुका देना। जो प्रभु की कृपाएं और उनका अनुग्रह चाहता है उसे चाहिए कि वह किसी से भी किसी तरह का वैर-विरोध न करे। वह सत्य बोले, वह असत्य, छल-कपट, निंदा-चोरी आदि से हमेशा दूर रहे। अपनी इंद्रियों पर हमेशा संयम रखे, किसी भी प्रकार का लोलुप-लालची न हो। वह कभी अहंकार अभिमान न करे, शत्रु-द्वेष को छोडकर मन को शुद्ध पवित्र रखें। प्रार्थना की शक्ति बहुत ही अद्भूत है। वह भगवान को भक्त का उद्धार करने के लिए अवश्य ही बाध्य कर देती है, परंतु प्रार्थना सच्ची हो, हृदय से हो। भगवान ने प्रार्थना मीरा की सुनी, बुद्ध की सुनी, उन सबकी सुनी जिन्होंने परहित के लिए उन्हें याद किया। वह हर मानव मन में चल रहे भाव-कुभाव को अच्छी तरह से जानते हैं। अत: उसके समक्ष जब भी जाएं, शुद्ध भाव रखें।