एक कहावत है राजा दुखी, प्रजा दुखी सुखिया का दुख दुना। कहने का अर्थ यह है कि संसार में जिसे देखो वह अपने को दुखी ही कहेगा। राजा का अपना दुख है, प्रजा का अपना और जिसे आप सुखी माने बैठें हैं उससे पूछ कर देंखेंगे तो वह भी अपने दुखों की पोटरी खोलकर अपनी व्यथा गाने लगेगा। लेकिन अगर आपके पास यह विकल्प हो कि आप अपना दुख किसी और को देकर दूसरे का दुख खुद स्वीकार कर लें तब आप कहेंगे कि अपना ही दुख भला है। इस संदर्भ में एक कथा है कि किसी गांव में एक फकीर आये। उनकी विशेषता यह थी कि वे किसी की भी समस्या दूर कर देते थे। उनकी इस विशेषता के बारे जिसे भी पता चला, वह उनके पास दौड़ा आया। अच्छी खासी भीड़ जमा हो गई और लोग जल्दी से जल्दी अपनी समस्या फकीर को बताने की जुगत भिड़ाने लगे।   
नतीजा यह हुआ कि हर कोई बोलने लगा। कोलाहल मच गया। फकीर ने सभी को चुप होने के लिए कहा। सभी लोग चुप हो गये तब फकीर ने कहा, मैं सबकी समस्या दूर कर दूंगा। आप सब लोग एक-एक कागज पर अपनी समस्या लिखकर लाएं और मुझे दे दें। कुछ ही देर में कागजों का ढेर लग गया। फकीर ने कागजों को एक टोकरी में रखा और उसे सबके बीच में रख दिया। एक आदमी की तरफ इशारा करके फकीर मे कहा, यहां से शुरू करके सब बारी-बारी से आएंगे और एक-एक कागज उठा लें।   
ध्यान रहे किसी को अपना कागज नहीं उठाना है। लोग एक-एक कर आए कागज उठा-उठा कर अपनी-अपनी जगह बैठ गए। फकीर ने कहा, अब इस कागज में लिखी किसी दूसरे की समस्या पढ़ो। अगर चाहो तो मैं तुम्हारी समस्या दूर कर दूंगा पर उसके बदले कागज पर लिखी समस्या तुम्हारी हो जाएगी। तुम्हें लगता है कि तुम्हारी समस्या बड़ी है तो उसे दूर करवाकर कागज पर लिखी दूसरे की छोटी-सी समस्या अपना लो। चाहो तो आपस में कागज बदल लो। जब तय कर लो कि अपनी समस्या के बदले कौन सी समस्या लोगे तो मेरे पास आ जाना। लोगों ने जब अपने पास कागज पर लिखी समस्या पढी तो वे घबरा गए। लोग एक दूसरे से कागज बदल-बदल कर पढ़ रहे थे। हर बार उन्हें लगता कि उनकी समस्या तो जैसी है वैसी है, पर इस नई समस्या का सामना नहीं कर पाएंगे। कुछ देर में हर किसी को समझ आ गया कि उनकी समस्या जैसी भी है उनके अपने जीवन का हिस्सा है और वे उसी का सामना कर सकते हैं। एक-एक कर के लोग चुपचाप वहाँ से चले गये।