अपने विचारों का मूल्यांकन करना कभी भी बंद न करें, क्योंकि विचारों का प्रवाह अनवरत और कभी-कभी अत्यधिक भी हो जाता है। हर नया विचार पुराने को चुनौती देता है। यहीं से भ्रम भी पैदा होता है और कभी-कभी अधिक विचार आने से निर्णय भी गलत हो जाते हैं। रावण के साथ यही हुआ। वह बहुत विद्वान था। लिहाजा उसके भीतर विचारों की भरमार थी।  
सुंदरकांड का दृश्य है। रावण के दरबार में हनुमानजी निर्भीक खड़े थे। दोनों का वार्तालाप शुरू होता है। 
कह लंकेस कवन तैं कीसा। केहि कें बल घालेहि बन खीसा।।  
की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही। देखउं अति असंक सठ तोही।। 
लंकापति रावण ने कहा - रे वानर! तू कौन है? किसके बल पर तूने वन को उजाड़कर नष्ट कर डाला? क्या तूने कभी मेरा नाम और यश नहीं सुना? रे शठ! मैं तुझे अत्यंत निरूशंक देख रहा हूं।  
मारे निसिचर केहिं अपराधा। कहु सठ तोहि न प्रान कइ बाधा।। तूने किस अपराध से राक्षसों को मारा? बता, क्या तुझे प्राण जाने का भय नहीं है? यहां रावण ने हनुमानजी से पांच प्रश्न पूछे। इन शब्दों में अहंकार भरा हुआ था। रावण ने अपने ही विचारों को शब्दों से जोड़ने के लिए अहंकार का सेतु बनाया, जबकि विश्लेषण के साथ शब्द प्रस्तुत करने थे, क्योंकि सामने हनुमानजी खड़े थे।  
हनुमानजी की विशेषता यही थी कि वे अपने विचारों का मूल्यांकन करते रहते थे। दरअसल रावण यह मानता ही नहीं था कि वह अहंकारी है। उसके हिसाब से तो जो वह कर रहा होता था, वही सही माना जाए। उसके पास सबकुछ होने के बाद भी वह अव्वल दर्जे का भिखारी था। यहीं से हनुमानजी उसे बुद्धि का दान देना शुरू करते हैं।